पुरूष और प्रकृति।

 

पुरूष की विशेषता

 

पुरूष शब्द का संबोधन आत्मा के लिए किया गया है।

 

पुरूष अर्थात आत्मा अविनाशी, निराकार और स्वयं प्रकाशित है। अर्थात स्वयं उत्पन्न हुआ है। चेतना पुरूष/ आत्मा का लक्षण है। इसका विभाजन नहीं किया जा सकता है, जो विभाजित प्रतीत होता है, वो स्वयं पुरुष/आत्मा हीं है।

 

पुरूष निर्गुण, अविकारी, अपरिवर्तनशील है। अर्थात सुख-दुख, लाभ-हानि, पाप-पुण्य आदि सभी विकारों से रहित और चिरस्थाई है।

 

जो भी जीवों में सत्व, रज एवं तम तीनों गुणों का प्रभाव प्रतीत होता है, ये सब प्रकृति के गुण हैं।

 

पुरुष/आत्मा गुणों से रहित, अपरिणामी है। ये केवल साक्षी भाव में रहने वाला, किसी भी परिणाम में भागिदारी न करने वाला, उदासीन दर्शक मात्र है।

 

पुरुष /आत्मा को सांख्य दर्शन में अनेक माना गया है। इसके लिए तर्क है कि इस सृष्टि में प्रत्येक जीव के जन्म-मृत्यु और अनुभव में भिन्नता पाई जाती है। यदि पुरूष/आत्मा एक हीं सत्ता होती, तो एक के मरने से सभी मर जाते या एक के जन्म लेने से सभी जीवित हो जाते। सभी के जन्म-मृत्यु का समय एक हीं होता।

 

प्रकृति की विशेषता

 

प्रकृति त्रिगुणात्मक और अचेतन है। अर्थात रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण ये तीन गुण प्रकृति के हैं।

 

प्रकृति परिणामी है। अर्थात प्रकृति के गुणों का हीं परिणाम सृष्टि है। इन्हीं तीनों गुणों के परिणामस्वरूप अठारह पदार्थ उत्पन्न हुए हैं। जिनके नाम हैं-

 

अंत:करण - बुद्धि, अहंकार (यानि मैं का भाव, भोगकर्ता होने का भाव), मन।

 

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - आँख, नाक, जिह्वा,कान, त्वचा।

 

पाँच कर्मेन्द्रियाँ- मुँह, हाथ, लिंग, गुदा और पैर।

 

पाँच तन्मात्रा -रस, रुप, गंध, स्पर्श और शब्द।

 

पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत बने हैं। ये पाँच माहाभूत हैं- अग्नि, आकाश, जल, पृथ्वी,वायु। इन्हीं पाँच महाभूतों के मेल से स्थूल शरीर का निर्माण हुआ है।

सत्त्व, रजो, और तम गुण हिन्दू दर्शन और योग शास्त्र में उपयोग होने वाले तीन प्रमुख गुण हैं, जो मानव व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को विवेचित करते हैं।

 

1. **सत्त्व गुण:**

 

- सत्त्व गुण ज्ञान, शांति, और संतुलन के साथ जुड़ा होता है।

 

- इसके उदाहरण में, एक व्यक्ति जो ध्यान, समर्पण, और सहानुभूति से भरा होता है, सत्त्व गुण के प्रतिष्ठान पर होता है।

 

2. **रजो गुण:**

 

- रजो गुण उत्साह, क्रियाशीलता, और अध्यात्मिक प्रगति के साथ जुड़ा होता है, लेकिन कभी-कभी अकेले आत्मबल की ओर ले जाता है।

 

- उदाहरण के रूप में, एक योगी जो साधना में प्रगल्भ है, रजो गुण के अंतर्गत आ सकता है।

 

3. **तम गुण:**

 

- तम गुण अज्ञान, असंगति, और अन्याय के साथ जुड़ा होता है।

 

- एक व्यक्ति जो आलस्य, अज्ञान, और असंगति की परिस्थिति में है, उसे तम गुण कहा जा सकता है।

 

ये गुण मानव व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक, और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाले तत्त्व हैं।

सांख्य दर्शन के 25 तत्त्व -

 

पुरुष

 

प्रकृति

 

महत्

 

अहङ्कार

 

तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध)

 

महाभूत (आकाश, वायु, तेजस्, जल एवं पृथिवी)

 

ज्ञानेन्द्रिय (श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसन एवं घ्राण)

 

कर्मेन्द्रिय (वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ)

 

उभयेन्द्रिय - मन

तत्वों से संबंधित सांख्ययोग

 

संसार कितने तत्वों से बना? इसका उत्तर हमें सांख्ययोग देता है जो तत्वों से संबंधित ज्ञान है। यह ज्ञान श्रीकृष्ण उद्धव को देते हैं भागवत के 11वें स्कंध में और यही ज्ञान कपिल अवतार में भगवान ने देवहुति को दिया जिसका वर्णन तीसरे स्कंध में है।× तत्वों की संख्या विभिन्न विद्वान भिन्न-भिन्न बताते हैं। यह संख्या 26, 25, 17, 6, 13 ऋषि मुनियों द्वारा बताई जाती है। तत्वों की संख्या को समझाते हुए श्री कृष्ण ने उद्धव जी को बताया है कि वह सब ही ठीक है। कारण सभी तत्व सब में अंतर भूत है। तत्वों का एक दूसरे में अनुप्रवेश है। जो जितने तत्व बताना चाहते हैं, वे कार्य को कारण में या कारण को कार्य में मिला कर अपनी चाही संख्या को सिद्ध कर लेता है। उदाहरणतः सोने में ज़ेवर, ज़ेवर में सोना---इन्हें कोई दो कोई एक बतलाता है। श्रीकृष्ण 26 तत्व बताते हैं- प्रकृति के कारण रूप 24 तत्व (प्रकृति, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच महाभूत व मन, बुद्धि और अहंकार), 25वाँ पुरुष आत्मा और 26वाँ ईश्वर। जो 25 तत्व मानते हैं उनका कहना है- जीव और ईश्वर में भेद नहीं है, भेद करना अज्ञान है। यदि तीनों गुणों को प्रकृति से भिन्न माने तो 28 तत्व हो जाते हैं।

 

सृष्टि कैसे होती है? यह कृष्ण बताते हैं कि अहंकार से इंद्रियाँ व इन्द्रियों के अधिष्ठाता 11 देवता प्रकट होते हैं। भगवत प्रेरणा से यह आपस में मिल जाते हैं तब ब्रह्मांड रूपी अंड उत्पन्न होता है। अण्ड को भगवान अपना उत्तम निवास स्थान बताते हैं। अंड जब जल में स्थित होता है तब भगवान नारायण रूप से इसमें रहते हैं। नाभि से ब्रह्मा जी को उत्पन्न करते हैं और इसके पश्चात् ब्रह्माजी सारी सृष्टि करते हैं। भगवान की प्रेरणा से ही भूलोक मानव के लिए, देवलोक देवताओं के लिए, भूत-प्रेत आदि के लिए अंतरिक्ष और इन लोकों के ऊपर महर लोक, तप लोक आदि सिद्धों के लिए बनाए जाते हैं। पाताल आदि लोक भी बनाए जाते हैं। जितने भी पदार्थ बनते हैं सब प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही मूर्त रुप ग्रहण करते हैं। संसार के समस्त पदार्थ और समस्त शरीर अनित्य हैं और हर क्षण परिवर्तनशील है। भगवान जब प्रलय का संकल्प करते हैं तब विनाश होता है। प्राणियों के शरीर अन्न में लीन हो जाते हैं, अन्न बीज में, बीज भूमि में और भूमि गंध में लीन हो जाती है। गंध जल में, जल अपने गुण रस में, रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है। रूप वायु में, वायु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में, आकाश शब्द तन मात्रा में लीन हो जाता है। इंद्रियाँ उनके कारण देवताओं में और उसके पश्चात् राजस अहंकार में समा जाती हैं। राजस अहंकार मन में और त्रिविध अहंकार महतत्व में लीन हो जाते हैं। महतत्व जोकि क्रिया शक्ति संयुक्त रहता है गुणों में लीन हो जाता है। गुण प्रकृति में, प्रकृति अविनाशी काल में, काल जीव में और जीव अजन्मा भगवान में समा जाता है। आत्मा के लिए बताया गया है कि किसी में भी लय नहीं होता, अपने स्वरुप में स्थित रहता है।

 

इस तत्वज्ञान से भगवान कहते हैं सारे संदेह मिट जाते हैं और पुरुष अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है। श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि योग, तपस्या और संन्यास से महरलोक, जनलोक, तपलोक और सतलोक की प्राप्ति होती है और उनकी भक्ति से उनका परमधाम मिलता है जहाँ जाकर वापस नहीं आना पड़ता, बाकी के सब लोक अनित्य हैं। वास्तव में आत्मा शरीर से अलग ही है। इसलिए आत्मा का कहीं आना-जाना नहीं होता। जब आत्मा अपने को लिंग शरीर समझ बैठता है, उसी में अहंकार कर लेता है, तभी आने जाने की प्रतीति होती है। कर्मानुसार जो शरीर मिलता है आत्मा उसे मैंसमझ बैठता है। यही आवागमन का कारण है। गीता भी यही बात कहती है। वास्तव में जीव को भगवान ने कर्ता बनाया ही नहीं।कर्म प्रकृति के गुण करते हैं, परंतु अपने आप को शरीर मानने के कारण जीव सोचता है कि कर्म मैंकर रहा हूं।जीव नित्य, चेतन, ज्ञानस्वरूप, आनन्दस्वरूप, अकर्ता व कृष्ण-अंश है। शरीर व प्रकृति जड़ व परिवर्तनशील हैं। जड़-चेतन का कोई नाता नहीं पर चेतन-चेतन अर्थात जीव- भगवान का न टूटनेवाला सम्बन्ध है। जब आत्मा अपने आप को शरीर से पृथक जान जाता है और ईश्वर का अंश जान जाता है तब उसकी संसार से आसक्ति मिट जाती है और भगवान की ओर ध्यान जाता है। मैंसमझ जाता है कि जिस आनंद और सुख शांति की खोज में वह है वह संसार में उसे नहीं मिलेगा वरन आनंदस्वरूप भगवान में मिलेगा। भगवान स्वयं आनंद हैं । भगवान का नित्य ध्यान करने से उसे भगवत-प्राप्ति होती है और आवागमन मिट जाता है।

 

ऐसा ही उपदेश गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी दिया।तत्व ब्रह्म, जीव, माया जो कि मूल तत्त्व हैं - के संबंध पर चर्चा होती ही रहेगी आगे भी। इन ऊपर बताए गए तत्वों के अलावा और कोई मुख्य तत्व ज्यादातर विद्वान नहीं मानते।

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