आत्ममंथन
आज हम जिस समाज में जीवन
व्यतीत कर रहे हे उस का मूलमंत्र पहले अपना,अपने परिवार का ,अपने सगे संबंधियो का,अपने दोस्तों का ,अपने पड़ोसियो का, मोहल्ले वालो का अपने गांव का ,शहर का फिर समाज का देश का ,संसार का भला हो। क्योकि आज हमारी मानसिकता ही ऐसी हो गई हे की हम
सिमितता के दायरे में ही सोच रहे हे। एक छोटी सी कहानी याद आती हे, एक छोटेसे गांव में एक कुआँ था उसमे एक मेंढक रहता था, जैसे की मेंढक की पृवृत्ति होती हे उछलना ,कूदना वह अपनी आदत के अनुसार एक किनारे से
उछलकर दूसरे किनारे तक अभ्यास के द्व्रारा एक ही छलांग में पहुँचने लगा और समझने
लगा की मेने पूरी दुनिया एक ही छलांग में नाप ली हे ,कुछ समय के बाद बहुत ज्यादा बारिश हुई वह कुआँ बारिश में
पूरा भरकर ओवर फ्लो होने लगा और गांव में बाढ़ आ गई और वह मेंढक बह कर तालाब में
पहुँच गया।जब वह उसे उछल-कूद का समय मिला तो फिर उसे एक किनारे से दूसरे किनारे
पहुँचने में थोड़ा समय लगा ,लेकिन हिम्मत कर वह पहुँच
ही गया,और अपनी विजय पर अहंकार
करने लगा,कुछ समय बाद फिर
आँधी-तूफान के साथ बारिश हुई, वह तालाब भी डूबकर नदी
में परिवर्तित हो गया, अब मेंढक कुछ परेशान हुआ
लेकिन उसने हार नहीं मानी,वह फिर से प्रयास करने
लगा की उसपार कैसे जायाजाय काफी कोशिश के बाद उसका यह प्रयत्न सफल होगया।लेकिन फिर
बहुत ज्यादा तूफान के साथ बारिश हुई और वह नदी समुद्र में मिल गयी जिस कारण मेंढक
महोदय भी समुद्र में पहुँच गया। अब मेंढक महाशय किनारा ढूंढ रहे हे नहीं मिल रहा
हे। इसी तरह हम सभी भी अपने जीवन में केवल स्वार्थ,माया ,मोह आदि के जाल में फंस कर मुक्ति चाहते हे,लेकिन क्या संभव हे ? बिना परोपकार,परमार्थ,निस्वार्थ सेवा के इस जीवन से मुक्ति संभव ही
नहीं हे। परमात्मा ने हमें इस सृष्टि में अच्छे कर्म करने के लिए भेजा हे,ताकि हम इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सके। लेकिन हमारे
कर्म उस मेंढक की तरह अहंकार से भरे हे की हम सभी समस्याओं को अपने स्वार्थ के साथ
जोड़लेते हे और समस्या को सुलझाने की बजाय उलझाते रहते हे। यह संसार अनन्त हे हम
मात्र एक छोटे से शरीर में रहते हे जिसकी भी आयु हमारे हाथ में नहीं हे। धन्यवाद
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